देहरादून। पिछले कुछ दशकों में देहरादून और उसके आसपास के क्षेत्रों में पर्यावरणीय असंतुलन तेजी से बढ़ा है। बढ़ते तापमान, घटते भूजल स्तर और खराब होती वायु गुणवत्ता लोगों के स्वास्थ्य और जीवन पर गंभीर प्रभाव डाल रहे हैं। हाल के वर्षों में, यहाँ का तापमान 43°ब् तक पहुँच चुका है, भूजल स्तर 200 फीट से नीचे चला गया है, और वायु गुणवत्ता सूचकांक 80 से 90 के बीच बना हुआ है, जिसका मतलब है कि लोग रोज़ाना औसतन दो सिगरेट के बराबर प्रदूषित हवा में साँस ले रहे हैं। इन गंभीर संकेतों के बावजूद, बिना किसी दीर्घकालिक पर्यावरणीय योजना के बड़े-बड़े विकास परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं। उत्तराखंड के लोग लंबे समय से वनों की अंधाधुंध कटाई और प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का विरोध कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि उत्तराखंड में सतत विकास को प्राथमिकता दी जाए। इसी संकल्प के साथ, ‘चिपको आंदोलन 2.0’ का आयोजन 16 मार्च 2025 को किया जा रहा है।
ऋषिकेश-जोलीग्रांट हाईवे परियोजना और इसके तहत 3,300 पेड़ों की कटाई पर रोक लगाई जाए। वर्तमान में, नेपाली फार्म से भानियावाला तक हाईवे पहले से मौजूद है, फिर भी नए हाईवे के नाम पर हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं। यह परियोजना उत्तराखंड में सतत विकास की मिसाल बन सकती है, यदि पेड़ों का संरक्षण किया जाए। यह न केवल पर्यावरण बल्कि वन्यजीवों और जैव विविधता के लिए भी आवश्यक है। देहरादून और इसके आसपास के पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में वनों के व्यावसायिक उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। भविष्य की सभी परियोजनाओं में सतत विकास को प्राथमिकता दी जाए। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन को अनिवार्य बनाया जाए ताकि कोई भी विकास परियोजना जंगलों के विनाश की कीमत पर न हो। देहरादून की पारंपरिक नहरों का संरक्षण और पुनरुद्धार किया जाए। ये नहरें भूजल रिचार्ज और अत्यधिक गर्मी के दौरान तापमान को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। देहरादून की प्रमुख नदियों (रिस्पना, बिंदाल और सौंग) को पुनर्जीवित किया जाए। ये नदियाँ जल संरक्षण के लिए बेहद जरूरी हैं, लेकिन बढ़ते प्रदूषण और अतिक्रमण के कारण इनका अस्तित्व खतरे में है। इन्हें प्लास्टिक कचरे और अनुपचारित सीवेज से बचाया जाना चाहिए। हरे भरे स्थानों को बढ़ावा देने के लिए सख्त नियम लागू किए जाएं। देहरादून और आसपास के क्षेत्रों में आने वाली सभी नई आवासीय और व्यावसायिक परियोजनाओं में कम से कम 25ः भूमि हरित क्षेत्र के लिए आरक्षित होनी चाहिए। वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए त्वरित कार्रवाई की जाए। वर्तमान 80-90 के बीच बना हुआ है, जो गंभीर स्वास्थ्य खतरे पैदा कर रहा है। यहाँ तक कि नवजात शिशु भी जहरीली हवा में साँस ले रहे हैं। इस संकट को दूर करने के लिए ठोस उपाय किए जाने चाहिए। 1980 के वन अधिनियम में संशोधन कर जंगलों में लगने वाली आग को रोकने के लिए प्रभावी रणनीतियाँ अपनाई जाएं। उत्तराखंड के जंगल हर साल भयानक आग की चपेट में आते हैं, जिससे लाखों पेड़ नष्ट हो जाते हैं। चीड़ के पेड़ों को नियंत्रित रूप से हटाने और आग से बचाव के लिए बेहतर उपाय किए जाने चाहिए। सभी नागरिकों, स्थानीय समुदायों और व्यापार संगठनों से अपील है कि वे इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाएँ और इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाएँ।
