अनेकता में मानव एकता

– संत राजिन्दर सिंह जी महाराज

सृष्टि के शुरूआत से ही कई नेक दिल आत्माएं मानव एकता की पुकार कर रही हैं। पिछले कुछ दशकों में इस ओर काफी तेजी से प्रयास किये जा रहे हैं। एकता के इन प्रयत्नों के बावजूद आज भी संसार में हम मतभेद और लड़ाई-झगड़े देखते हैं। ऊँचे विचारों वाले लोग इस विषय पर भाषण और सम्मेलन भी आयोजित कर लोगों का ध्यान मानव एकता की ओर आकर्षित करते हैं लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर मानव एकता तभी आ सकती है, जब हम इसे अपने अंतर में अनुभव करेंगे। जब हम परमात्मा में लीन हो जाते हैं तो हम परमात्मा की ज्योति सबमें देखते हैं। वास्तव में तभी हम एकता का अनुभव करते हैं, तब सबसे प्रेम करना आसान हो जाता है क्योंकि हम सबमें अपनी परमात्मा का ही स्वरूप ही देखते हैं। यदि हम सच में मानव एकता का लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं तो पहले हमें इसे खुद अनुभव करना होगा।

ज़रा सोचिये! कितना सुंदर होगा हमारा संसार, जब हर व्यक्ति, हर प्राणी में प्रभु की ज्योत के दर्शन करेगा और हर तरफ प्यार व शांति का माहौल होगा। हमारे होठों पर प्यार के बोल होंगे, हमारे हर कार्य में कोमलता होगी। हमारी आँखों से प्यार छलकेगा। जो भी हमारे दायरे में आएगा वह शांति और खुशी महसूस करेगा। इस प्यार का अनुभव करने के लिए हमें वक्त के किसी पूर्ण संत की संगत में जाना होगा क्योंकि वे प्रभु-प्रेम के स्त्रोत होते हैं तभी हम उनकी संगत में अनंत प्रेम और शांति का अनुभव कर पाते हैं। अक्सर जब कभी हम दुःखी मन से संतों के पास जाते हैं तो हम यह महसूस करते हैं कि वहाँ हमें सब दुःखों से छुटकारा मिल जाता है। वे हमसे प्रेम से बात करते हैं, प्यार से हमें गले लगाते हैं और दिल की गहराई से हमारा ख्याल रखते हैं।
उनकी संगत में हम दुनिया के सभी दुःख-दर्द भूल जाते हैं। हमें लगता है कि हम खुशी के लम्हों में जी रहे हैं। वक्त ठहर जाता है और हमारी सभी परेशानियाँ कहीं दूर चली जाती हैं। यह नतीजा होता है एक ऐसे महापुरुष की संगत में आने का जो प्रभु में लीन है और सारी सृष्टि से एक बड़े परिवार की तरह से प्रेम करते हैं। जो उन महापुरुषों ने प्राप्त किया है, ऐसा प्रेम हम भी पा सकते हैं। क्या यह सुखद नहीं होगा? यदि वह प्यार और भाई-चारे की भावना हमसे मिलने वाले हर व्यक्ति से प्रसारित हो रही हो।
प्रभु ने इस संसार को उस बगीचे की तरह बनाया है, जिसमें सुख, शांति और प्रेेम हो। इस तरह के स्वर्ग को इस ज़मीन पर लाने के लिए हम सबको अपना-अपना योगदान देना होगा। प्यार और आत्मिक एकता हम सबमें अंतर से उत्पन्न होती है। हम दूसरों से आत्मिक प्यार और एकता की उम्मीद तब तक नहीं कर सकते, जब तक हम खुद उन खूबियों को अपने जीवन में न उतारें। इस सुंदर स्वप्न को सच करने के लिए हमें ध्यान-अभ्यास का रास्ता अपनाना होगा। जिसके द्वारा हम अपने आपको जान सकते हैं और प्रभु को पा सकते हैं।
जब हम सबसे प्यार करना शुरू कर देते हैं तो हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है। हमारा दूसरों से बर्ताव करने का तरीका बदल जाता है। हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अहिंसक हो जाते हैं। हम दूसरों के स्वभाव, विशेषताओं और आदतों का कारण समझने लगते हैं और हमें उन पर दया आती है। हम मन ही मन लोगों की आलोचना करना बंद कर देते हैं क्योंकि हम जान जाते हैं कि वे नासमझी और माया के अधीन होकर इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं। हम समझ जाते हैं कि उनके अंतर में भी आत्मा है, जोकि परमात्मा का अंश है और वे आध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण इस तरह का बर्ताव कर रहे है। हम प्रभु के प्यार और आनंद में इस कदर डूब जाते हैं कि हम लोगों की छोटी-छोटी बातों में उलझ कर उस प्रभु के प्यार और परमसुख से दूर होना नहीं चाहते, जिन बातों में लोग उलझे रहते हैं, हम उन बातों से बहुत दूर हो जाते हैं।
मन ही मन हम दूसरों की आलोचना करके उस सुख से वंचित रहते हैं जो हमें प्रभु मिलन से प्राप्त होगी। यदि हम प्रभु का चिंतन करते हैं तो हमारी आत्मा में प्रभु का प्यार और मिठास उत्पन्न होंगी। हम इस तरह की कोई भी बात नहीं कहेंगे, जो किसी को बुरी लगे। जो लोग हमारे दायरे में आएंगे उन्हें हम केवल प्यार से ही मिलेंगे। अगर कभी गलती से हमारे मुख से अपशब्द निकल जाते हैं तो हम उन शब्दों से दूसरों को होने वाले दुःख को महसूस कर लेते हैं और हम उसी वक्त उसके लिए माफी मांगते हैं और अपने संबंधों को बिगड़ने नहीं देते। हम दूसरों के दिलों के प्रति भावुक हो जाते हैं और उनके दिल को दुखाना नहीं चाहते। अंततः हम कभी किसी को भी कोई कष्ट नहीं देते और अहिंसक हो जाते हैं। हम सृष्टि के सभी प्राणियों की ज़िंदगी के प्रति भी आदर भाव रखते हैं। इसीलिए परमार्थ अभिलाषी पूर्णतः शाकाहारी बन जाते हैं। वे किसी भी जीव के प्राण नहीं लेना चाहते क्योंकि वह सब में उस प्रभु की ज्योति को देखते हैं।
जब हम आत्मिक एकता को प्राप्त कर लेते हैं तो वे दीवारें जो इंसान को इंसान से अलग करती हैं, अपने आप ही गिर जाती हैं। हम चाहे मंदिर या मस्जिद में प्रार्थना करें, हम इस बात का अहसास करने लगते हैं कि हमने चाहे किसी भी धर्म में जन्म लिया हो, हम सब एक ही प्रभु की प्रार्थना करते हैं। हम जानते हैं कि परमात्मा एक है। चाहे हम उसे भगवान, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, सर्वशक्तिमान या सृष्टिकर्त्ता के किसी भी नाम से पुकारें। हम अनेकता में एकता देखने लगते हैं। हमें इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई हिन्दू है या मुसलमान, सिख है या जैन, ईसाई है या यहूदी, बौद्ध है या पारसी। हम जान जाते हैं कि सबमें प्रभु की ज्योति विद्यमान है। चाहे वह गोरा या काला हो। हम इस बात से परिचित हो जाते हैं कि प्रभु सबमें है, चाहे वह एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका या यूरोप में पैदा हुआ हो। हम अहसास करने लगते हैं कि एक ही प्रभु की ज्योति सबमें है।
हम यह भी मानने लगते हैं कि हमारे रीति-रिवाज़ और संस्कृति अलग-अलग हैं लेकिन सभी प्राणियों में आत्मिक एकता है। ध्यान-अभ्यास के ज़रिये हम छोटे-छोटे पैमाने पर प्रभु के प्रेम और ज्योति के दूत बन जाते हैं। बहुत से ऐसे लक्ष्य हैं जिनके लिए लोग मिलकर कार्य करते हैं पर सबसे ऊँचा मानव एकता का कार्य है, जिसके लिए हमें अपने आपको समर्पित करना है। मानव एकता हर एक के अंतर से शुरू होती है। पहले हमें प्रभु से मिलन करना है, तब मानव एकता अपने आप ही उत्पन्न हो जाएगी। हम जहाँ कहीं भी जाएंगे उस आत्मिक एकता की खुशबू को फैलाएंगे। दूसरे लोग भी हमसे प्रेरित होंगे और धीरे-धीरे हरेक व्यक्ति यह जान लेगा कि ध्यान-अभ्यास के ज़रिये वह अपनी आत्मा का मिलाप परमात्मा से करा सकता है और वास्तविक खुशी, व्यक्तिगत संतुष्टि तथा सदा-सदा के सुखचैन को प्राप्त कर सकता है।
इस प्रकार हम शांति और एकता को इस ज़मीन पर ला सकते हैं। हम पहले ही दुनियादारी की उपलब्धियों और भौतिक लक्ष्य को पाने में काफी वक्त गंवा चुके हैं। हम देख सकते हैं कि ऐसा करके हमें कितनी खुशी प्राप्त हुई है? हम सोच-विचार कर सकते हैं कि क्या हमने दुनिया के दुःख-दर्द या परेशानियों से निजात पा ली है? आज हम संसार की हालत को देख सकते हैं। शांति और एकता तभी स्थायी होगी जब हम अपनी आत्मा का परमात्मा से मिलाप करा लेंगे। अगर हम इसको अपना लक्ष्य बनाते हैं और इसे साकार करना चाहते हैं तो हमें इसी ज़िंदगी में ध्यान-अभ्यास द्वारा प्रभु-प्रेम, एकता और शांति को प्राप्त करना होगा। संत-महात्माओं के हम आभारी हैं और उनका शुक्राना अदा करते हैं, जिन्होंने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें हमें ध्यान-अभ्यास की विधि सिखाकर ज्योति और श्रुति का रास्ता दिखाया। हम इस सुनहरे अवसर का फायदा उठाएं क्योंकि इस लक्ष्य की प्राप्ति से हम केवल अपने या अपने करीबी लोगों की सहायता नहीं करते बल्कि हम सारे संसार को भी शांति और एकता के सूत्र में बांधते हैं।

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